शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

काँच के रिश्ते ?


नहीं पता ये काँच के रिश्ते हैं 
या रिश्तों में दरकता है काँच 
निर्मल काँच ही है चमकता
रेत का एक कण भी कहीं 
बहुत गहरे छोड़ जाता है 
चंद प्रश्न करते हुए निशान 
आत्मा को खरोंचती अनबूझी 
रपटीली पगडंडियों सी चिटकन 
इन रिश्तों में दिखती अपनी ही 
अजनबी सी परछाईं है , 
अपने ही  अनसुलझे सवालों के 
मनचाहे जवाब तलाशता 
अपराधी सा अंतर्मन है .....
                        -निवेदिता 

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

अर्धनारीश्वर .....


रौशनी के पावन पर्व में 
झिलमिलाते दीयों की 
टिमटिमाती उजास में 
खिलखिलाते ये पल 
आंखमिचौनी सी खेलते 
कुछ अनदिखा दिखला 
यादों से पर्दा हटा जाते 
सकुचाये कदमों में 
झांझर सा झनक जाते 
डगर थी नई नई सी 
कदमों की बनी लीक को 
सहेजती अनुगामिनी बन 
चलना सहज था ........
न तो वक्त बदला न मौसम
शायद बदले थे हालात  
अनुगामिनी बने चलते जाना 
रोकता प्रवहित गति तुम्हारी 
बस एक कदम ही तो बढ़ाना था 
अनुगामिनी से सहगामिनी बन 
हाथों का दो से चार बन जाना
एक अनोखा विस्तार दे गया 
चलो कुछ हम भी बाँट लें
अर्धनारीश्वर को साकार करें  
तुम बाती बन राह दिखलाओ 
मैं दीप की ऊष्मा बन बस 
प्राणवायु जगाती रहूँ ..........
                          -निवेदिता
.

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

भटकते बहकते पल .....


अंधियारी रातों की वीरानी 
रूखेपन को घोलता सन्नाटा 
गंगाजल .... ओस की बूँदें ...
कुछ भी नहीं चाहिए ...
जरूरी हैं जीवन - जल सी 
बस चंद अश्रु - बिंदु की आहट
रेगिस्तानी मारीचिका जैसे 
ओएसिस बन वीराने में 
बरसाते जीवंत ऊष्मा भरे 
भटकते बहकते  पल ........
                        -निवेदिता 

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

बिखरे लम्हे ..................



क्या खोजा ,क्या पाया 
क्या चाहा ,क्या सराहा 
क्या फला ,क्या झरा 
क्या जला ,क्या बुझा 
इन उलझनों में भटकता 
मन वृन्दावन हो गया !


सबसे मूल्यवान जल 
प्रिय नयनों में बसता है 
मात्र इक प्रतिशत पानी 
शेष बसती भावनाएं हैं !


इतना भर आया मन 
सब शून्य हो गया 
छलकते रहे मन-प्राण 
शुष्क मधुबन हो गया !


बाल मन की चाह चाँद पाने की 
युवा मन की चाह चाँद बन जाने की 
हारे मन की कैसी अनोखी प्यास 
अमावस में चांदनी बचा ले जाने  की !
                                       -निवेदिता 

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

मरने के पहले जीना सीख ले .............


  
    हमारा जीवन हर आती - जाती ,छोटी - छोटी साँसों की डोर से बँधा चलता है | जिस भी पल ये कच्चा धागा टूट जाता है ज़िन्दगी पर एक पूर्णविराम लग जाता है !आज का वर्तमान कल का अतीत बन व्यतीत हो जाता है ,परन्तु जब ज़िन्दगी को महसूस करने की बारी आती है ,अक्सर हम बड़े अवसरों को खोजने लगते हैं | जैसे एक इंतज़ार सा रहता है कि कोई चुटकुला सुनाये और हम हँस दें | जबकि अगर हम शांत हो एकांत में सोचें तो मुस्कराहटों की लड़ी न टूटे ऐसे कई सारे लम्हे दिल - दिमाग को सहलाते लहरा जायेंगे
             कितनी भी असाध्य लगता रोग हो ,हम उसका उपचार खोजने का प्रयत्न करते हैं और साथ में पीड़ित व्यक्ति के हँसते गुदगुदाते पलों को भी खोजते हैं | दुर्भाग्यवश जिस का एक पैर न हो ,उस को भी ज़िन्दगी बैसाखी के सहारे चलना सिखा देती है | नेत्रहीन व्यक्ति भी गिरने की सोच कर बढ़ते कदमों को थाम नहीं लेता ,टटोल कर चल ही पड़ता है | कई को तो जीवनरक्षक उपकरणों के सहारे भी कुछ पल का विस्तार ज़िन्दगी दे ही देती है
             अक्सर तनिक सा भी व्यवधान आ जाने पर ,जीवन में निराशा भर जाती है ........ एक अंधकूप सा बन जाता है और उठने वाला अगला कदम उन अतल अबूझ सी गहराइयों में धकेलता लगता है
             ये सब सत्य होते हुए भी जब ज़िन्दगी से विमुख नहीं करते हैं ,तो इसका मूल कारण क्या हो सकता है ? क्या हम ज़िन्दगी को जीना नहीं जानते हैं ? क्या हम उसका सम्मान नहीं रख पाते ? मुझे लगता है ये एक कटु सत्य है | हम शायद जीना भूलते जा रहे हैं | हमारी प्रकृति ,हमको अपनी कलाकारियों से भ्रमित करती ,जिन्दादिली से विमुख कर देती है | अपने सामने डगमगाते नन्हे कदमों को भूलते हुए उनके एक उच्च स्थान पर आसीन होने की कल्पना और कामना करते रह जाते हैं
           अन्धेरा भी हमको इसलिए ही समझ आता है क्योंकि हमने कभी प्रकाश भी देखा था | जब सभी रंग संतुलित होते हैं तभी हमें भी उजलापन दिखता है | जहाँ भी रंगों ने संतुलन खोया अंधियारा छा जाता है |
           छोटी -छोटी साँसों से सीख कर हर पल में सुकून पाने का प्रयास ही ज़िन्दगी को जीने काबिल बनाता है | मरने के पहले जीना सीख लेना चाहिए .............
           ......निवेदिता                                                    
                                                                                                                                                                                                                                   

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

जीवन एहसासों में बसता है ...........



सहज  लम्हे थे या फिर वो 
लम्हे थे इसलिए सहजता .....
जीवन साँसों के रहने से नहीं 
जीवंत एहसासों में बसता है 
चाँद-तारों के विस्तार से 
इक नन्हीं सी कली गुलाब की 
सुरभित दायरा पूरती है 
काँटों की चुभन सहलाती 
शोखी रंगों की छुपा जाती 
हल्की सी गुलाबी फुहार से 
ये एहसास ये जज़्बात 
लगते गंगासागर से 
गंगा निर्मल औ सागर विशाल 
जीवन में भरते अनोखा विस्तार
हीरे मोती जो तुमने वारे हैं 
जीवन में बहुत सारे हैं 
सुंगध लहराती ये कली 
लगती सबसे प्यारी है 
जानते हो क्यों .....क्योंकि 
दिखती इसमें छवि तुम्हारी है ...........
                        -निवेदिता 

बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

ओ आसमान के चाँद !!!




ओ आसमान के चाँद ,
तुम वहीं कहीं चमकना ,
भूले से भी कभी यूँ ही 
नीचे न आ जाना .....
अपनी आदत से मजबूर 
तुझे किरचों सा तराश 
टुकड़ों-टुकड़ों में बाँट डालेंगे 
तेरी चांदनी भी कटी-फटी
टुकड़ों में ही झिलमिलायेगी
चमक कहाँ ,वो तो चांदनी की 
दम तोड़ती परछाईं रह जायेगी
हम तो तुझे हर वार-त्यौहार  में 
शगुन सा पुकारेंगे ,तुझे देख-देख  
तुझ पर पुष्प ,अर्ध्य - जल वारेंगे 
कामना की पूर्ती में शीश नवायेंगे  
गणेश -चौथ हो या करवा -चौथ
निहारते तेरी बाट ..... 
पर तू न आया तब भी  ,हम तो 
अपने धरती के चाँद में तुझे पायेंगे 
पर कहीं भूले से आ गया , तुझ में 
दाग खोज मन ही मन मुस्कायेंगे .....
कभी जीवन कभी जल की खोज में 
तुझ तक पहुँच तेरे भी टुकड़े कर डालेंगे
तुझे पूजते-पूजते तेरे टुकड़ों को भी   
बेच-बेच कर सब से ऐसे ही पुजवायेंगे
इसीलिये ओ चाँद !आसमान के चाँद !
भूले से भी धरती पर न आ जाना .........
                                           -निवेदिता 

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

हम दूसरों का जीवन अधिक अच्छी तरह से अनुभव करतें हैं .......



      शायद सुनने में अजीब लगे ,पर ये अक्षरश: सच है कि हम दूसरों का जीवन अधिक अच्छी तरह से अनुभव करतें हैं | 

     अपने स्वयं के जीवन में घटने वाली घटनाओं और चुनैतियों का हम सामना करते हैं ,जबकि दूसरों के साथ घटित होने पर हम प्रतिक्रिया भी देते हैं |अपना बचपन कब आ कर बीत जाता है कोई भी नहीं जान पाता ,क्योंकि वो जीवन का सबसे निश्छल और पावन समय होता है | बच्चे कुछ सोचते नहीं हैं ,बस अपनी प्रतिक्रिया जाहिर कर देते हैं | वो कैसे लग रहें हैं अथवा क्या कर रहें हैं ,ये बिना सोचे अपने हर पल को जीते हैं | जब खुद बड़े हो जाते हैं तब दूसरों का बचपन देख कर उसको समझते हैं | थोड़े बड़े होने पर अपनी पढाई में इतना व्यस्त हो जातें हैं कि और कुछ भी नहीं देखते हैं | जब जीवन एक दिशा पा कर थोड़ा सा शिथिल होता है तब घर अथवा छात्रावास में जीवन के सबसे अमूल्य बेफिक्री के लम्हों को जीते हैं | जब अपने जीवन के कर्मक्षेत्र में चुनौतियों का सामना करते हैं और अपना पारिवारिक जीवन प्रारम्भ करते हैं ,तब फिर से व्यस्तताओं में घिर कर छोटे-छोटे लम्हों और उनकी खुशियों  को अनदेखा सा कर जाते हैं | इस पूरे समय में ही हमारे जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण बातें हो चुकती हैं ,जिन्हें हम अक्सर अनदेखा कर के और अधिक उपलब्धियां पाने का प्रयास करते हैं | अपने जीवन के अधिकतर उत्तरदायित्वों से मुक्त हो कर प्रौढावस्था में ,हमको खुद अपने जीवन को देख पाने का समय मिलता है ,पर तब जीवनचर्या एक सपाट ढर्रे पर चल देती है लगभग घटनारहित हो कर | उस समय हम दूसरों के बच्चों में अपना और अपने बच्चों का बचपन खोजने लगते हैं | अपने जीवन का लक्ष्य खोजते युवाओं को देख कर उनकी ऊर्जा को अनुभव करते हैं | अपने बच्चे कब पढाई पूरी करके जीवन में व्यवस्थित हो गये पता ही नहीं चलता | दूसरों के बच्चों को देखने पर इसमें किये जाने वाले प्रयास की अनुभूति होती है | 
        शायद इसके मूल में एक ही तत्व रहता है कि हम अपना जीवन चुनते नहीं है ,अपितु जब - जैसी परिस्थितियाँ सामने आती हैं उसको जीते हैं | उन लम्हों की व्यस्तता चुनौतियों का सामना करने को ही प्रवृत्त करती है ,दूसरे रास्ते खोजने का मौक़ा ही नहीं रहता है | अपने जीवन के उत्तरकाल में एक प्रकार से कार्यरिक्त होने पर बचने वाले खाली समय में हम दूसरों के जीवन की अनुभूतियों को अधिक तीव्रता से अनुभव करते हैं | ऐसा सिर्फ सुखद परिस्थितियों में ही नहीं ,दुःख में भी होता है | दूसरों का दुःख और उससे उत्पन्न हालात हम समझ पातें हैं ,जबकि अपने जीवन में घटित दुखद हालात हमें स्तब्ध कर देते हैं | इन परिस्थितियों से सम्भवत: सिर्फ वही लोग बच पाते होंगे जो आत्मकेंद्रित रहते हों |
         अपने जीवन में बीतने वाले हर पल को हम जीते हैं और दूसरों के पलों को हम अनुभव करते हैं !