रविवार, 30 सितंबर 2012

प्यार के लिए बस प्यार चाहिए ......




प्यारा हो प्यार जरूरी नहीं 
प्यार के लिए बस प्यार ही चाहिए 
प्यार का दिल वीराना हो 
प्यार तो बेशुमार छलकाना चाहिए 
प्यारे का प्यार न भी मिले 
प्यार अपना बेहिसाब होना चाहिए 
प्यार दिखता नहीं तो क्या 
प्यार का एहसास भी जीना चाहिए
प्यार चाहिए ये कहें क्यों 
प्यार बस आँखों से बरसना चाहिए                  
प्यार के लिए रस्में क्या 
प्यार तो बस मन में बसना चाहिए 
प्यार में शर्तें क्या वादे क्या 
प्यार में जीने को बस एक सांस चाहिए 
प्यार में निगाहें यार के 
प्यार ,प्यार और बस प्यार चाहिए .......
                                           -निवेदिता 

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

" अभिषेक " : एक एहसास सम्पूर्ण संतुष्टि का -:)





माँ  बनना  अपने आप में एक बहुत प्यारा एहसास है | इस बात को हर माँ समझती है और एक पिता को थोड़ी सी ईर्ष्या होती है -:) अपनी पहली श्वांस से बच्चा सबसे अधिक  निकट माँ  के  ही रहता है | उसकी हर कही - अनकही  धडकनें माँ  के  दिल में ही बसी रहती हैं | बच्चे का जन्म माँ का भी एक नया जन्म होता है ,फिर उसके  जन्मदिन  की  आहट भी एक नई ऊर्जा जगा जाती है | आज हमारे छोटे बेटे " अभिषेक " का जन्मदिन है -:)

बच्चों  के  जन्मदिन  पर  उनको क्या उपहार दिया जाए हर वर्ष ये सोचते थे ,पर आज इस छोटे से बच्चे ने कितने अनोखे गौरवान्वित पल हमें दिए मैं ये अनुभूत कर रही हूँ ! जब बड़े  बेटे " अनिमेष " का जन्म हुआ हम बहुत खुश थे | बस यही लगता था कि हमारा परिवार कितना सुखी है | इन लम्हों की खुशी अभिषेक के आने से  दुगनी  हो  गयी | अब अनिमेष को भी अपने भाई का साथ मिल गया था | उन दोनों की अपनी ही दुनिया बन गयी थी ,जिसमें उनके शरारतें भी होती और एक - दूसरे के  प्रति  अगाध प्यार भी रहता | जब भी उन दोनों को देखती , बस  यही  लगता अनिमेष  ने  हमारे परिवार का प्रारम्भ किया और अभिषेक ने उस परिवार को सम्पूर्ण किया ! 

दोनों अपनी निश्छल चंचलता से सबके दुलारे बने ,आपस में एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा भी रखते थे | जब भी स्कूल से लौटते तो दोनों अपनी कॉपी में "गुड" गिनते और हमें दिखाते | जिसका भी कम रह जाता वो दूसरे दिन की प्रतीक्षा करता ! इस प्रकार हर परीक्षा में दोनों एक - दूसरे के प्रतिद्वंदी बन जाते और एक - दूसरे की उपलब्धियों पर खुश भी बहुत होते | सब को आश्चर्य होता था पर हमारे दोनों बच्चों के अंक अपनी दोनों बोर्ड (दसवीं और बारहवीं ) की परीक्षाओं में भी एक से थे ... कक्षा दस में ९४.८ प्रतिशत और  कक्षा १२ में ९२.८ प्रतिशत ! इसके बाद दोनों आई.आई.टी.कानपुर भी आगे - पीछे पहुंचे ! इस प्रकार हमारे परिवार में बेशक हर काम की शुरुआत अनिमेष ने की , पर उसको  अभिषेक ने आगे ले जा कर परिवार के लिए सम्पूर्णता तक पहुँचा दिया |

अपने  जीवन  के  सबसे  अधिक  गौरवान्वित  पलों  को  याद  करती  हूँ  तो  सबसे  प्यारा  लम्हा  याद  आता है , अनिमेष   के  आई.आई.टी. में चुने जाने पर आने वाली बधाइयों का ! पर उसमें भी , जैसा कि दस्तूर है कुछ काँटे  भी चुभा  दिए गये कि देखो दूसरा बेटा क्या कर पाता है ! अगले ही वर्ष अभिषेक  भी  भाई का पीछा करता कानपुर पहुँच गया | सच रिजल्ट आने के बाद वाले पन्द्रह दिन तो एक सपने जैसे ही लगते हैं | मिलने वाली  बधाईयाँ  और समाचारपत्रों  में छपने वाली तस्वीरें एक तरह से जिम्मेदारियों की पूर्णता का एहसास करा रहीं थीं ! 

अनिमेष के हास्टल चले जाने के बाद घर में सिर्फ  अभिषेक  और मैं बचे | ये समय हम माँ - बेटे को कुछ और भी अभिन्न बना गया | हम लगभग हर  विषय पर बिंदास बातें करते | इस समय जब  मैं  सोचती कि अभिषेक हास्टल  में  कैसे रह पायेगा , क्योंकि वो बहुत अन्तर्मुखी था ,और मेरा बच्चा नित नये आइडिया लाता कि मैं कुछ ऐसा शुरू करूँ जिससे उसके जाने के बाद  अकेलापन  न  महसूस  करूँ ! इस एक वर्ष के समय को उसने हमारी स्पेशल दोस्ती की संज्ञा दी है ,और यदा-कदा याद दिलाता रहता है |

आज भी मेरी अनमोल धरोहर हैं अभिषेक के मेरे जन्मदिन पर बनाये गये कार्ड | ये सिलसिला उसने अक्षर - ज्ञान होने के साथ ही शुरू कर दिया था | अभिषेक के पेंट किये  हुए  रुमाल  भी मैंने संजो रखे हैं ,जो उसने कक्षा दो - तीन में बनाये थे |

आज सोचती हूँ ,अभिषेक के जन्मदिन पर उसके लिए क्या विशेष मंगलकामना करूँ ,तुमने तो अपनी हर उपलब्धि से एक सम्पूर्णता का एहसास दिया है ..... हर आती - जाती श्वासें बस तुम दोनों को ही याद करती हैं | बस एक ही दुआ है जैसे अब तक रहे हो ऐसे ही ताउम्र बने रहो ...... बहुत सारी उपलब्धियाँ हासिल हों ,पर दिल का बचपना बना रहे ..... चश्मेबद्दूर !!!
                                                -निवेदिता 


सोमवार, 24 सितंबर 2012

उम्र की दस्तक ......


हमारी पहली श्वांस से ही उम्र अपनी दस्तक देना शुरू कर देती है ,पर हम अनजान सा बने उसको अनदेखा कर जाते हैं | ज़िन्दगी के प्रारंभिक पल सिर्फ खुशियाँ और व्यस्तता बरसाते रहते हैं | कुछ उम्र का अल्हड़पन , कुछ विचारों की तीव्रतम गति किसी लम्हे पर ठिठक कर नित नई  उलझनें  देती श्वासों को थामने का मौक़ा ही नहीं देते | ये वो दौर होता है जब हर मंजिल अपनी पहुँच में और हर कठिनाई आसान प्रतीत होती है | असफलता ,तो हमें लगता है सफलता का पहला सोपान है | कोई  भी दुःख अथवा  कष्ट , कभी  लगता  ही  नहीं कि हमारे जीवन में भी आ सकता है | पर वास्तव में उम्र का सत्य हर कदम पर अपना एहसास कराता रहता है |

आने वाली हर श्वांस उम्र के एक लम्हे के पूर्ण हो चुकने का आभास देती है | आगे बढ़ता हुआ हर क़दम जीवन यात्रा की पूर्णता की तरफ  इंगित करता है | लगता है जैसे एक दायरा पूरा हो चला ! अबोधावस्था से क्रमिक ज्ञान की तरफ जाती चेतना परम की तरफ ले जाती है | जैसे - जैसे उलझनें बढती हैं सरल मन भी छल और कपट को समझने लगता है | इसको ही तथाकथित सामाजिकता और समझदारी मान लिया जाता है | 

नित बढती शक्ति और सामर्थ्य के मद में ,समस्त संसार को नश्वर और खुद को प्रबल मानने की छलनामयी भूल कर जाता है | पर यहाँ भी उम्र अपनी दस्तक से  उसको सचेत करने का प्रयास करती है | कभी नेत्रों की ज्योति कमजोर होने लगती है , तो  कभी बढ़ते कदमों की दृढ़ता लड़खड़ाने लगती है | कभी केशों में सफेदी दस्तक देती  है , तो कभी वाणी की स्पष्टता धूमिल हो जाती है | बढती  आयु  अपना एहसास कुछ  ऐसा दिलाती है कि हम पूरा शरीर न रह कर , कष्ट के अनुसार विभिन्न अंगों में बँट जाते हैं और उस पीड़ा से मुक्ति की कामना में चिकित्सक  के द्वार पहुँचने लगते हैं | पर तब भी सहजता से बढती उम्र का स्वागत न करके अफ़सोस के साए में गुम हो जाते हैं | कितना भी जीवन गुज़र गया हो ,जीना नहीं सीख पाते | 

बढती उम्र  की  दस्तक तो एक धूम्र - रेखा सी होती है , एकदम हल्की सी झलक कर शीघ्रता से ओझल हो जाने वाली | सही समय पर इस को समझ लिया जाए और अपने आचरण को सुधार लें तो कोई पछतावा नही होगा | इसके लिए हमको बस हर लम्हे का सम्मान करना आना चाहिए | अन्यथा समय निकल जाने के बाद पश्चात्ताप करना तो आसान ही है !
                                -निवेदिता 

शनिवार, 22 सितंबर 2012

मुक्तक

                     १

धरती का पानी ,
धरती पर ही वापस आना है 
पर हाँ ! उसको भी पहले वाष्प 
फिर घटा ,तब कहीं वर्षा बन 
बरस धरा में मिल जाना है ...

                     २ 

हथेलियों में जब 
मेहंदी सजी रहती है 
हाथों की लकीरों में 
ये कैसा अनजानापन 
बस जाता है !

                    ३ 

सच ! 
सच में इतना कड़वा क्यों होता है 
जब भी कभी सच बोलो 
आँखों में चुभते काँटे और 
जुबान पर ताले क्यों लग जाते है ?
 
                  ४ 

आसमान के सियाह गिलाफ़ पर 
चाहा तारों की झिलमिल छाँव 
बेआस सी ही थी अंधियारी रात 
बस किरन टँकी इक चुनर लहराई 
इन्द्रधनुष के रंग झूम के छम से छा गये 
तारों की पूरी कायनात ही दामन सजा गयी ....
                                                     -निवेदिता    

रविवार, 16 सितंबर 2012

ट्रैफिक सिग्नल सी ज़िन्दगी .......


ट्रैफिक सिग्नल सी 
टिक गयी हूँ 
ज़िन्दगी के उलझे 
चौरस्ते पर 
जब किसी की 
गति की तीव्रता को 
थामना चाहा 
तनी हुई भौंहों की 
सौगात मिली 
पर हाँ ! ये अनदेखा 
कैसे कर जाती 
सहज करती राहों पर 
बढती गति , स्मित 
बरसा मुदित सा कर जाती 
गति की तीव्रता में 
रहती है भिन्नता पर 
चौराहे को यथावत छोड़ 
कभी हास तो कभी आक्रोश बरसा 
अपनी मंजिल को बढ़ ही जाते हैं 
वो चौराहा और उसका सिग्नल 
दोनों ही एक सा ठिठक 
निहारते रह जाते  हैं 
बस पूर्ण करने 
एक दूजे के अस्तित्व को .....
                                 -निवेदिता 

बुधवार, 12 सितंबर 2012

सवालों की उलझनें .......


हर कदम पर
ज़िन्दगी मुझसे
और मैं भी
ज़िन्दगी से
सवाल पूछ्तें हैं
इन सवालों के
जवाब तलाशती
राहें भी कहीं
अटक सा जाती हैं
नित नये सवालों की
उलझनें सुलझाती
और भी उलझती सी
मन के द्वार तक
दस्तक नहीं दे पातीं
एक अजीब सा
सवाल जगा जातीं हैं
हम वो सवाल भी
क्यों हैं पूछते ,
जिनके जवाब
हम देना नहीं चाहते
शायद सवाल तभी
जाग पातें हैं
जब जवाब देने का
ज्ञान कहीं सो जाता है
अनजानी-अनसुलझी
वादी में मन बावरा
भटक जाता है ....
                    -निवेदिता 

रविवार, 9 सितंबर 2012

तलाश लिया तुमने बाईपास .....


कभी ओस की बूँद कहा
कभी पलकों तले का स्वप्न
कभी फूलों से मिलाईं
सुरमयी सुरभित मुस्कान
नाता भुला कर दिया  कभी
कोमल पावन दामन तार-तार
कभी प्रस्तर मूरत बना
नानाविध पकवान्न सजाये
भोग लगा आप ही उदरस्थ कर गये
न्याय के दरबार में भी सजा दिया
पर रहे आदत से लाचार
हाथों में तो थमा दी न्याय की तुला
नयनों की रोशनी छीन बाँध दी पट्टिका
अब तो जो तुम बोलो वही सुनूँ
जैसा वर्णित करो वही अंधी आँखें देखें
प्रस्तर बन गयी मूरत में भी धडकन बन
दिल अभी शेष है ,कभी उसको भी तो देखो
इन शिराओं में आया कैसा अवरोध
गतिरोध बन रक्त प्रवाह थाम रहा
रास्तों में ही नहीं रिश्तों में भी
तलाश लिया तुमने बाईपास .....
                                     -निवेदिता


शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

यत्र नार्यस्तु .........


जब बहुत छोटी थी , तब भी सुना था " यत्र नार्यस्तु पूज्यते , रमन्ते तत्र देवता "  ..  जैसे - जैसे पढने की अभिरुचि विकसित हुई और विद्यालय के पाठ्यक्रम में भी स्त्रियों के बारे में बहुत कुछ पढ़ा .... कभी " अबला जीवन " की कहानी ,तो कभी " तोडती पत्थर " या फिर कभी " खूब लड़ी मर्दानी " तो अगले ही पल " नीर भरी दुःख की बदली "... जब शेक्सपियर को पढ़ा तो पता चला  "Frailty thy name is woman "......  अजीब सी उलझन जगाती ये पंक्तियाँ ... इनमें कहीं भी स्त्री अपने सहज रूप में ,एक संतुलित इंसान के रूप में नहीं दिखी .. 


बहुत पहले का समय देखें अथवा अब का अधिकतर हर स्तर पर अग्निपरीक्षा स्त्री की ही होती है .. आज भी अगर  सड़क  पर  किसी  स्त्री को  अपशब्द  सुनाये जाते हैं तब भी अधिकतर का ध्यान उस स्त्री को पीड़ा देते शब्दों पर और उस स्त्री पर ही होता है , उस समय एक भी निगाह उस शख्स को नहीं देखती जो ऐसे अपमान करते शब्दों का विष - वमन करता है .. स्त्री का पल्लू खींचा ये तो सब देखतें है पर उस पल्लू को खीचने वाले हाथों को रोकने का साहस नहीं करते हैं .. स्त्री के परिधान और चरित्र की शव विच्छेदन करने में जितना कम समय लगाते हैं ,उससे भी कम समय में तथाकथित वीरता का महिमामण्डन कर गुजरते हैं .. आमजन को कुछ भी सार्थक करने में होने वाला परिश्रम करना बेहद दुष्कर लगता है ,इसीलिए अपेक्षाकृत सरल काम कर देते हैं अपने मोबाइल से वीडियो बनाने का ....

अक्सर लगता है , कि हम किसी अघटित के घटने की प्रतीक्षा करते हैं .. जब कोई घटना समाचार - पत्र अथवा टेलीविज़न पर छा  जाती  है , तब उसपर अपना आक्रोश और प्रतिक्रियाएं देने की होड़ सी लगा देते हैं ,कि हम कितने सम्वेदनशील हैं .. कभी भी ये प्रयास क्यों नहीं करते कि ऐसी कोई घटना हो ही नहीं .. पीड़ा में अथवा ये कहूँ सम्भावित पीड़ा में अपना और अपने अपनों का चेहरा हम क्यों नहीं देख पाते .. 

बहुत सोचा ,पर इसका ठोस कारण ,जो लगभग हर परिस्थिति में मान्य हो ,नहीं खोज पायी .. अब लगता है कि अगर इसका समाधान पाना है तो हमको खुद अपनी क्षमता का आभास करवाना होगा .. अपनी क्षमता के आभास से मेरा तात्पर्य सिर्फ यही है कि उन अत्याचारी हाथों से हम स्त्रियाँ हर पल जुडी हैं .. उन हाथों को थाम कर पहला कदम रखना सिखानी वाली  माँ  एक स्त्री ही है .. उस  कलाई  पर रक्षासूत्र बाँधने वाली बहन भी एक स्त्री ही होती है .. उन हाथों से लगा सिन्दूर अपने माथे पर धारण करने वाली भी एक स्त्री ही होती है .. उन हाथों में अपना हाथ थमा कर कन्यादान करवाने का तथाकथित पुण्य दिलवाने वाली बेटी भी एक स्त्री ही है .. अगर ये सब स्त्रियाँ अपनी सामर्थ्य को पहचान कर ,उस हाथ को आततायी बनने ही न दें .. पहली गलती करते ही उन  हाथों को  थामने का और आवश्यकता पड़ने पर तोड़ देने का साहस करना ,स्त्रियों को सम्मान दिलवाने की दिशा में पहला और बहुत सार्थक कदम होगा .. सामान्यतया होता इसके विपरीत ही है .. अगर गुनाहगार हमारा अपना होता है ,तब समस्त सामर्थ्य लगा देते हैं अपने को निर्दोष और पीड़ित को दोषी साबित करवाने में ..

सिर्फ स्त्रियों पर इस का दायित्व डाल देना और पुरुषों को सर्वथा मुक्त कर देना ,तो ऐसा लगेगा कि हम सिर्फ सुरक्षा के उपाय खोजने में ही लगे हुए हैं , न कि  संकट  को समाप्त  करने में ..पुरुषों को भी याद रखना चाहिए कि उनको जन्म देने वाली एक स्त्री  ही  थी , उनकी मंगलकामना करती बहन भी स्त्री  है , हर परिस्थिति में उनका आत्मबल बढ़ाने वाली उनकी पत्नी भी स्त्री ही है , अपने नन्हे किलकते बोलो से घर आंगन भरने वाली बेटी भी स्त्री ही है .. स्त्री के इन सभी रूपों के प्रति वो अतिरिक्त रूप से सजग रहता है ... जब भी कभी भी स्त्री के प्रति कुछ भी उसकी अस्मिता के विरुद्ध होता दिखे ,तो उसको बस अपने जीवन को एक सुखद अनुभूति बनाने वाले इन सभी स्त्री रूपों  को याद कर उसका प्रतिकार अवश्य करना चाहिए .. समाज  को  अपना  परिवार मान कर दूसरी स्त्रियों की प्रतिष्ठा की सुरक्षा भी अपने परिवार की अन्य स्त्रियों की तरह करनी चाहिए .. किसी भी स्थिति में मानसिक दीवालियेपन का परिचय नहीं देना चाहिए .. स्त्री को एक व्यक्ति मानना ही इस समस्या का समाधान हैं .. किसी ऐसे अघटित के घटित होने पर मात्र दर्शक न बन कर ,एक दृढ प्रतिरोधक भी बनना चाहिए ...

ऐसी कोई भी घटना जब घटित होती है तो कुछ समय तक टेलिविज़न और हर तरह की चर्चाओं में प्रमुखता से छाई रहती है  कुछ समय बाद वो एक दृष्टांत भर बन के रह जाती है .. लगता है अगली की प्रतीक्षा रहती है और सब ये माने रहते हैं कि उनके परिवार के साथ तो किसी भी परिस्थिति में ऐसा नहीं होगा ,यद्यपि ऐसी कोई गारंटी नहीं होती ,तब भी .. उस अवांछनीय घटना के न घटित होने के कोई भी उपाय नहीं किये जाते हैं ...

इस समस्या का उपाय एकांगी हो कर नहीं पाया जा सकता .. स्त्री अथवा पुरुष ,ऐसा न सोच कर व्यक्ति बन कर सोचा जाए तभी व्यक्तित्व का भी विकास होगा और समाज का भी .. एक -दूसरे पर दोषारोपण किसी समस्या का समाधान नहीं है , क्योंकि पूर्ण रूप से कोई भी संतुलित नहीं है ...
                                                                                                                                                 -निवेदिता 
                                                                                                                                                                          

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

आज ........ कल ........

मेरी यादों में 
मेरे वादों में 
मेरे इरादों में 
किलकता 
मेरा जो "हास" है 

पलकें थकने पर 
श्वासें अटकने पर 
सब के सब्र की
इति होने पर 
हाँ बस यही कल 
मेरा "इतिहास" है !!!
            - निवेदिता 


सोमवार, 3 सितंबर 2012

इक नया आसमान तलाशना है !!!



पाँव के नीचे सच की जमीं 
ख़्वाबों को नया आसमां दिया  
दिल की धडकनों में बस 
नित घटती श्वांसों में भी 
अलबेला जीवन सजा दिया
हाँ सच कहते हो कडवाहटें
हमेशा घेरा डाले  रहेंगी
प्रदूषित भी है हवा तो क्या
श्वांस लेना तो नहीं छोड़ देंगे
चुभते हैं कंकड़ पांवों में
पग बढाने का साहस
हमें ही तो करना पड़ेगा 
इन ज़हर बरसाती निगाहों 
कंटक सा चुभती बातों में ही 
इक नया आसमान तलाशना है !!!
                                     -निवेदिता 

शनिवार, 1 सितंबर 2012

क्यों कहूँ मैं पीछे ..............


भला बताइए तो इस नारी मुक्ति के और नारी जागरण के समय में हम पीछे क्यों रहें ! जब देखो सब टिका जाते हैं तुम बेचारी स्त्री हो समाज तुम्हे चैन से जीने नहीं देगा ... बस मेरे पीछे ही रहो | हमारी भी कोई गलती नहीं | हम तो जीवन की पहली साँसे लेने के साथ ही परम्परावादी बन अनुसरण करते रहे | पूरी कोशिश की इतना कम पढने की ,कि विद्यालय में पीछे की कुर्सी मिले | पर  उफ़ ये सहपाठी , पता नहीं  कैसे हमसे भी कम पढ़ते और मजबूरन हमको अग्रासन मिल जाता ! खेल के मैदान में पीछे रहने का प्रयास किया तो यहाँ भी किस्मत हमसे पहले ही अट्टहास करती पहुंच गयी और हम डिफेंडर बना दिए गये !अब देखिये हमारी क्या गलती .... हमने पूरे मनोयोग से ये प्रयास किया था ,पर सफल न हो पाए   (

अगर थोड़ा और पीछे देखा जाए ,मेरा तात्पर्य है मेरे जन्म से ,तो यहाँ भी हम इंतज़ार करते रहे और अपने चारों भाईयों के बाद प्रगट हुए | पर यहाँ भी भाईयों ने दुलार - दुलार में सबसे आगे रखा  -:) कोई कुछ भी कह ले बात तो हमारी ही मानी जानी थी | कैशौर्यावस्था में आते ही फिर सलाहकारों ने हमारी माँ की घेराबंदी की " अब तो कुछ सिखा दो | दूसरे घर जायेगी परिवार की नाक कटा देगी | " वगैरा - वगैरा .....

अब जब शादी निश्चित हुई तब हमने भी सोचा थोड़ा शालीन बनने की ट्रेनिंग ली जाए | पर हाय रे देश का दुर्भाग्य ! ऐसे किसी ट्रेनिंग कैम्प का पता चल पाने के पहले ही शादी की तिथि द्वारे खडी शहनाई बजाने लगी  -:)  भाभियों ने समझाया " थोड़ा चुप रहना और हमारे इशारे को देखना | " मंडप में बाकायदा नाउन को समझाया गया कि वो हमारे सर को नीचे की तरफ दबाए रखे | मंडप में जैसे ही फेरे पड़ने शुरू हुए हमने पतिदेव को अपने साथ बंधने की चेतावनी देने के लिए ,बाकायदा गठ्बन्धन के दुपट्टे को थोड़ा सा झटका भी दिया और उनकी तीव्र गति को नियंत्रित करने का प्रयास किया | अब बदनाम तो बेचारी मैं ही होऊँगी पर क्या करती चार फेरों के बाद पंडित जी ने फिर से हमको आगे कर दिया  .......

ससुराल पहुंचने पर गृहप्रवेश के समय भी ,मेरी सासू माँ ने आरती करते समय ,दिशा के अनुसार ,मुझको आधा कदम आगे कर दिया  | अब बताइए मेरी क्या गलती बिना मेरे कुछ बोले भी हर जगह मुझे आगे ही कर दिया जाता है | रही - सही कसर हमारे बच्चों ने पूरी कर दी | कभी भी कहीं जाना हो अथवा कुछ करना हो तो उनकी एक स्वर में मांग रहती " पहले आप !" 

अब इस नारी - मुक्ति के समय में मैं इन आंदोलनों का हिस्सा नहीं बन पाती हूँ ...(  बहुत कारण खोजे और मनन किया  तभी अचानक ज्ञान - चक्षु खुल गये कि मुझे  इन  आंदोलनों  की अथवा अपनी अनिवार्यता जताने की आवश्यकता  क्यों  नही  पड़ी !  दरअसल कभी भी  मैंने अपने स्त्री होने को लेकर शर्मिन्दगी नहीं महसूस की | अपनी गरिमा को भी समझा और अपने दायित्वों को भी | बस अब तो हमें किसी को कहना ही नहीं पड़ता "मुझे आगे बढने का अवसर दो !" 
                                                                                                                                                                              निवेदिता