शनिवार, 3 नवंबर 2012

चाँद





चाँद भी अक्सर यूँ  ही बेवफा हो भी जाता है 
कस्मों को भूल रस्मों की याद दिला जाता है
रस्मों को  उलझाती  हुई  हर कशमकश में
उमगती  चांदनी  पर  अमावस  की याद में
धुंधलाती चादर का धूमिल शामियाना बन
राहों में श्वांस - श्वांस किरच सा बिछ जाता
अपनी ही नहीं बेगानी बेपानी आँखों में भी
अविरल बरसती अश्रु धार सौगात दे जाता
ये रेगिस्तानी ओस भी हमारे दरमियाँ पल
नागफनी की चुभन सा डस दंश दे जाती है
कसूरवार चाँद है या उस चंदा की ही चांदनी
अनसुलझी पहेली सा चाँद ताकझाँक करता
चमक - चमक कर ढूँढने निकला अपनी ही
अलबेली लगती सी चांदनी को ..............
                                          -निवेदिता




14 टिप्‍पणियां:

  1. क्या सजा तय की जाये बेवफ़ा चांद के लिये?

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  2. सब कसूर चाँद का ही है....
    फिर भी उससे मोहब्बत कम नहीं होती..जाने क्यूँ??

    सस्नेह
    अनु

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  3. बादलों को दरकिनार कर चाँद निकल आया . क्या पता बादलों की तरह बेवफाई के आक्षेप से भी निकल आये.

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  4. chalo aisa karte hai...chand ko saja dete hain....matla "saja" dete hain ,"saza" nahi.. vo to bahut pyara hai ..hai na!!

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  5. chand pr sabhi ko pyaar aata hai tabhi to bechaara badnaam ho jata hai .....

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  6. चाँद तो सदियों से ही आनन्द ले रहा है।

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  7. इस तांक-झांक में जो प्रकट होता है, वह सत्य ही है।

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  8. खुद में ही लिप्त...प्यारी सी कविता है...!!!

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