शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

सीप सा होना चाहती हूँ ......




सीप यूँ तो अक्सर ही  
मोती सहेजे रखती है 
अपने दामन में बरबस 
उसकी चमक संजोये 
अनजानी उम्मीदें जगा 
इंद्रधनुषी रंग सजा 
संजीवन जीवंत हो जाती है 
पर  …
कभी - कभी 
जानी पहचानी प्यास जगा 
सीप नि:शब्द रह जाती है 
मोती तलाशते स्पर्श 
रूखे सन्नाटे की 
रिक्ति विरक्ति में 
दामन रीता ही पाते हैं 
और हाँ !
सीप और मोती 
अलग रहने पर भी 
दूर कहाँ हो पाते हैं 
सीप की गोद सहेजे रहती है 
मोती की चमक 
मोती भी तो सराहता है 
सीप की दुलराती छाँव 
बस यूँ ही 
बरसती बूँदे देख - देख 
मन बावरा बहक गया 
सीप को खोजते - खोजते 
धड़कन में मोती सा दमक गया  …… निवेदिता 

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

ख़यालों की उलझन .......


ये मौसम ,
बड़े ही अजीब होते 
उन कदमों से 
इन आँखों तक 
रोज ही 
अपनी राह बदलते हैं 
कभी नम
कभी खुश्क साँसें भर 
बसंत को पतझर 
बना निर्जीव कर जाते हैं 

सफर 
फूलों का 
बस इतना सा ही है 
उस शाख से 
पूजा की डोली तक 
और कभी 
दुल्हन की डोली से 
कदम बढ़ा 
उस की अंतिम शय्या तक 


निष्कंटक 
बनी शाख की 
अनछुई छुवन 
अधखिले फूलों सी 
तीली के लब पर 
कंपकंपाती थिरकन 
ख़यालों के 
हर निशान समेटती 
वो तपन 
मासूम से शोलों की  ....... निवेदिता 


शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

चिराग तले अंधेरा .....


" चिराग तले अंधेरा " इस उक्ति का प्रयोग हम बड़े ही नामालुम तरीके से अनायास ही यदाकदा करते करते रहते हैं। इस का अर्थ भी हम अपनी सुविधानुसार ले लेते हैं । कभी इसके द्वारा हम किसी पर अपनी खुन्नस निकल लेते हैं ,तो कभी उपहास के लिए और कभी कुछ प्रतिक्रिया न देने के प्रयास में भी ऐसा बोल दिया जाता है । 

कल मैंने फेसबुक पर कुछ ऐवें ही टाइप स्टेटस में लिखा "शक तो कई दिनों से था ,पर विश्वास आज हुआ कि चिराग तले ही अँधेरा होता है " … इस कथन को कई दोस्तों ने लाइक भी कर दिया और रोचक टिप्पणी भी की  … अनु ने कहा भी कि कारण बता दूँ अन्यथा गलत इंटरप्रिटेशन हो जाएगा  … शिखा ने भी अच्छा सुझाव दिया फ्लोटिंग चिराग जलाने का … पाबला जी ने जानना चाहा कि कहीं बिजली तो नहीं चली गयी  … एक दूसरी मित्र ने इसको एक पत्नी की व्यथा बताई  … अनु के कहने पर मैंने यही कहा कि देखते हैं औरों का  इंटरप्रिटेशन भी पता चलेगा  … कुछ और रोचक टिप्पणियाँ मिलीं और इनबॉक्स के विचार तो एकदम बेबाक थे ही  … 

जिस सोच के साथ मैंने ये लिखा था , वो इन सबसे बहुत अलग थी । जब भी इस उक्ति के बारे में सोचती थी मुझे ये सोच सर्वथा नकारात्मक प्रतीत होती थी । चिराग और अँधेरा दोनों ही अलग व्यक्तित्व सरीखे हैं । एक में सब कुछ कितना पारदर्शी बन जाता है ,जबकि दूसरे में कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता । दोनों को एक साथ रखना तो लगता है एक टूटे हुए बरतन को अनवरत बहती जलधारा से भरने का प्रयास किया जा रहा है , जिसमें यथास्थिति बनी रहने का भ्रम होता है परन्तु मिलता कुछ भी नहीं है । 

इस उक्ति को अगर हम ये सोच कर देखें कि चिराग तले अँधेरा नहीं है अपितु अँधेरे पर चिराग रखा गया है । हम जब भी अपने अंदर की नकारात्मकता को बदलने का एक सार्थक प्रयास करते हैं तब एक सकारात्मक ऊर्जा के सान्निध्य की अनुभूति होती है । 

रौशनी चाहे वाह्य जगत की हो अथवा हमारे अंतर्मन की ,वो होती है अँधेरे की पूरक । ये दोनों ही एक दूसरे में व्याप्त शून्य को अपने साहचर्य से परिपूरित करते हैं । जैसे दो भिन्न सोच के व्यक्तित्व वाले सबसे अच्छे सहभागी होते हैं ,क्योंकि किसी भी विचार के हर पहलू की विवेचना दो सर्वथा भिन्न तरीके से हो जाती है और इसमें त्रुटियों की सम्भावना लगभग शून्य रह जाती है । 

चिराग के नीचे के अन्धकार ,चिराग के ऊपर के प्रकाश को देखता एक अवगुंठनवती नवोढ़ा सदृश लगता है जो एकदम बिदास अल्हड़ बाला को देख रहा हो ,दोनों ही अपने-अपने दायरे में अपने होने का आभास देते से … 

मेरे अपने विचार में तो चिराग तले का अन्धकार बड़ा रहस्यमयी और सकारात्मक सहभागिता लिया होता है और बड़ा ही रचनात्मक भी  …… निवेदिता