रविवार, 9 फ़रवरी 2014

आईना और परछाँई



ये अपना रिश्ता भी न  
सच बड़ा ही अलग सा है ,  
अपने बारे में जब भी सोचा  
तो तुम बस तुम दिख जाते हो , 
तुम को जब भी जानना चाहा 
तो आईना बन मैं ही दिख जाती हूँ , 
सूरज की तीखी चमक हो 
या चाँद की स्निग्ध शीतलता , 
परछाँई सा रच - बस कर   
एक दूजे की धड़कन बन जाते हैं ,
अपने हर सवाल का 
अपनी हर उलझन  का 
हर हल एक दूजे में ही पा जाते हैं 
इस रिश्ते को क्या कहूँ 
आईना और परछाँई का 
परछाँई के आईने का या 
आईने की परछाँई का रिश्ता  …… निवेदिता 

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर ..... समझकर भी समझना मुश्किल.... :)

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  2. क्या बात है.... रिश्तों में ऐसी ही आपसी समझ और स्वीकार्यता होनी चाहिये :)

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  3. कोमल भावो की और मर्मस्पर्शी.. अभिवयक्ति ..

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  4. वाह...
    क्या बात है..
    सुन्दर एहसास..

    stay blessed!!
    anu

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  5. प्रेम गली अति साँकरी, जा में दो न समाए... एक में दूसरा नहीं और दूसरे में पहला नहीं... बस एक में एक दिखाई देता है!! सच्चे रिश्तों की सच्ची कविता!! बहुत प्यारी!!

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  6. स्वयं मे स्वयं की पहचान ...स्वयं के विस्तार में स्वयं का संकुचन ,या स्वयं का शून्य ...!!...सुंदर रचना निवेदिता जी !!

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  7. सुन्दर भाव से समाहित रचना .....!!

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  8. आइना समझो या परछाई , ऐसे ही आमने सामने भी , भीतर भी !
    सुन्दर !

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  9. बहुत ही सुन्दर,प्यारी रचना..
    मनभावन...
    :-)

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  10. बिंब-प्रतिबिंब --रिश्तों का रहस्य है यही !

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  11. बेहद गहरे अर्थों से लबरेज़ रचना..

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