शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

द्रोण का शिष्यत्व -- एक अभिशाप

द्रोण  ----- ये नाम सुनते ही सामान्य रूप से एक ऐसे शिक्षक की छवि उभरती है जो अपने शिष्यों के प्रति पूर्णतया समर्पित व्यक्तित्व है  .एक ऐसा गुरु जो अर्जुन को अधिक प्रतिभाशाली पा कर पूर्ण समर्पण के साथ अपना समस्त ज्ञान देने को प्रयासरत है ,यहां तक की इस प्रक्रिया में वो अपने पुत्र ,अश्वत्थामा की भी उपेक्षा कर जाता है  . कौरवों की दुष्प्रवृत्ति को भी अपने सतत प्रयास से सद्ऱाह पर लाने को दृढ़प्रतिज्ञ प्रतीत होता है  . यहां तक कि  कुरुक्षेत्र के महासमर के पूर्व युद्ध की रणनीति तय करने की सभा में भी ,द्रोण कौरवों - पांडवों के मद्ध्य संधि स्थापित हो जाए इसके लिए भीष्म के साथ प्रयासरत दिखे  . 

पर इससे परे जा कर ,एक गुरु की गरिमा की कसौटी पर अगर परखा जाए तो अपनी प्रत्येक पदताल पर द्रोण अपने आचार्यत्व की गरिमा से बहुत दूर जाते दीखते हैं  ........  द्रोण के शिष्यों में मुख्य रूप से जिन शिष्यों के नाम मुख्य रूप से आते हैं वो हैं - पांडव ,कौरव ,एकलव्य  इत्यादि  . अगर तटस्थ हो कर देखा जाये तो द्रोण ने इनमें से अपने किसी भी शिष्य के प्रति गुरु की गरिमा का पालन नहीं किया  . 

एकलव्य की कथा तो हम सब जानते हैं  . हस्तिनापुर के राज्याश्रय को बनाये रखने के लिए द्रोण ने एकलव्य का गुरु बनना अस्वीकार कर दिया और जब वही एकलव्य उनकी माटी की मूरत के समक्ष अभ्यास कर - कर के एक प्रवीण योद्धा धनुर्धारी के रूप में उनके के समक्ष आया तब उससे गुरुदक्षिणा की माँग कर बैठे  .इस तरह अदृश्य रह कर भी एक गुरु के रूप में दिए गए आदर के फलस्वरूप उसका अँगूठा मांग लिया  . क्या यही एक गुरु का दायित्व है ? अपने ही तथाकथित शिष्य को अपंग कर देना ? पर एकलव्य यहीं पर नहीं रुका .उसने अपने इस तथाकथित गुरु के अभिमान और उसकी मंशा पर पर जैसे कालिख सी पोत दी और बिना अँगूठे के भी धनुष का संचालन स्वयं ही सीखा और गुरुकुल भी बनाया ,जिसमें उपेक्षित वर्ग को धनुर्विद्या की शिक्षा दी !

अगर द्रोण  के सबसे प्रिय शिष्यों ,पांडवों की बात करें तो ,उनके साथ भी द्रोण ईमानदार नहीं रहे  . जब तक शिष्य के रूप में पांडव उनसे सीखते रहे ,अनायास ही द्रोण ने अपने बदले की अग्नि को पोषित करने वाली समिधा के रूप में उन को तैयार किया और अपने चिरशत्रु द्रुपद से बदला लेने के लिए उनको दीक्षित किया और उनसे गुरुदक्षिणा के रूप में द्रुपद को युद्ध में परास्त कर बन्दी बनवाया  . यहां तक तो सब कुछ उनके मनोनुकूल ही चल रहा था ,पर राजनीति और रणनीति किसी एक की बपौती तो होती नही है ,तो द्रुपद ने जब द्रौपदी के स्वयंवर का आवाहन किया तो द्रुपद ने उसकी पात्रता की शर्त ही यही रखी कि तैल - पात्र में देख कर मछली के नेत्रों का शर संधान  .ये कार्य या तो अर्जुन कर सकते थे या फिर कर्ण ,जो सूतपुत्र होने की वजह से अपात्र था अब अर्जुन के लक्ष्य वेध करते ही द्रोण  के आदि शत्रु द्रुपद और पांडवों में निकटता बढ़नी ही गुरु -शिष्य के मद्ध्य आयी हुई इस दूरी का ही परिणाम था द्रोण सदैव कौरवों के पक्ष में ही दिखे  .पांडवों को द्रोण के शिष्य होने की सबसे बड़ी कीमत कुरुक्षेत्र के युद्ध में चुकानी पड़ी ,जब द्रोण ने छलपूर्वक अर्जुन को युद्धक्षेत्र से दूर भेज कर चक्रव्यूह की संरचना की ,जिसका मूल्य चुकाया कौरव और पांडव दोनों ही कुल के अंतिम वंशबेल लक्ष्मण और अभिमन्यु ने  !

द्रोण अपनी जिस निष्ठां की बात कर के कुरुक्षेत्र के युद्ध में सदैव कौरव पक्ष में बने रहे ,वहाँ भी उन्होंने अपनी निश्छल निष्ठां नही दिखाई  . यदि ऐसा होता तो कौरवों के हर गलत कर्म पर वो मूक न रहते  . युद्ध में भी वो अपनी ऐसी ही दुविधा नही दर्शाते कि वो युद्ध का परिणाम जानते हैं अथवा मन से वो पांडवों के साथ है पर राज्य के प्रति निष्ठा के परिणामस्वरूप ही कौरव पक्ष से युद्ध कर रहे हैं  . ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में हैं जब राजाओं ने अनुचित कर्म किये तो उनके गुरु - मंत्री - सेनानी ने उनको छोड़ दिया है

द्रोण कितने भी बड़े युद्धवीर क्यों न हो ,परन्तु उन्होंने अपने शिष्यों से अपने गुरु होने का मूल्य अनुचित रूप से ही वसूला है  . उनका ये कार्य उनको गुरु की गरिमा के विरुद्ध करता है और उनके शिष्यों को उनका शिष्य होने के लिए अभिशप्त करता है  ! ………… निवेदिता