सोमवार, 26 दिसंबर 2016

माँ - पिता




माँ कदमों में ठहराव है देती 
पिता मन को नई उड़ान देते
माँ पथरीली राह  में दूब बनती
पिता से होकर धूप है थमती
माँ पहली आहट से हैं जानती
पिता की धड़कन आहट बनती
ये ठहराव ,ये उड़ान क्यों अटकती
हर आहट क्यों धड़कन सहमाती
अब न तो दूब है ,न ही धूप का साया
तलवों तले छाले हैं ,सर पर झुलसन
न ही कोई ओर है न ही कोई छोर
कितनी लम्बी लगती सांसों की डोर ...... निवेदिता

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016



पापा .... 
ये एक शब्द है 
या एक रिश्ता 
या सच कहूँ तो है 
मेरी आत्मा की 
दृढ़ता का प्रतीक
कभी दुलराया नहीं
जतलाया भी नहीं
पर जानती हूँ
मैं भी थी आपकी
अनबोली आस्था की
आपके विश्वास का
प्रतीक चिन्ह
मैंने भी कभी नहीं कहा
पर .....
जानते हैं
आपके आँखे मूँदते ही
मैंने अनुभव किया
चटक चांदनी में
झुलसाती लू के थपेड़े
आज बस एक ही बात
समझना जानना चाहती हूँ
ऐसी भी क्या जल्दी थी
यहाँ से जा कर
धूप का ताप सहलाने की .... निवेदिता

मंगलवार, 13 दिसंबर 2016

नींव का पत्थर





एक चुभन सी हुई 
सोचा अपने नाम की 

नामालूम सी 
अनदेखी ठोकरें खाती 
इक ईंट खिसका दूँ 
पर तभी अनायास ही
नजरें टिक गयीं
इमारत की बुलन्दी पर
और .....
कुछ खास नहीं
बस मैंने अपने हाथ हटा लिये
और नींव का पत्थर बन गयी ..... निवेदिता